Friday, November 4, 2011

Capital Express

कैपिटल एक्सप्रेस कटिहार जंक्शन  पार कर चुकी है,
और अल्फाज हैं के छूटने को बेताब हो रहें हैं। 

'एक सर्द रात के बाद कुछ अल्साइ सी धुप करवट बदल रही है
और सैकड़ों ज़िंदा कहानियों  लेकर ट्रेन वैसे ही रुक-रुक कर चल रही है।

कुछ बच्चों का झुण्ड मेरे पास की सीट पर बैठ मुस्कुरा रहे हैं,
और कुछ अपने नए गर्म कपड़ों पे इतरा रहें हैं,

कोई कर रहा है अपने नन्हे हाथों से अपनी टोपी उतारने की कोशिश
तो कोई एक एक दूसरे को फुसला रहे हैं। 

चाय-चाय की वह जानी पहचानी आवाज जब सभी को उनके नींदों से जगाने लगी,
स्टेशन का नाम देखने मेरी भी आँखें खिड़की से बाहर झाँकने लगी। 

ट्रैन का यह लम्बा सा सफर स्टेशन के उस चहल-पहल में छुपने लगा
आने ही वाली थी मंजिल भी मेरी ट्रैन का सायरन यह जोर-जोर से कहने लगा।

फ़िर नज़र पड़ी अगले केबिन में बैठी गुमसुम उदास सी  लड़की पर
बार-बार जो कर रही थी घडी पर अपने नजर

शायद कोई है जो बैठा है उसके इन्तेजार में
प्लेटफार्म की सीट पर या स्टेशन की कतार में

पर सुइयां देखने का अब भी कोई फायदा नहीं
जैसे सर्दी में गाडी और समय का कोई वायदा नहीं

 अब ट्रैन धीरे से अपने पहिये थाम रही है
और देखो वह लड़की भी अब थोड़ा मुस्कुरा रही है।

बस कुछ इस तरहा से कैपिटल एक्सप्रेस हर बार मुझे घर ले आती है
शबनम के बूंद से ये मीठे एहसास चुपके से दे जाती है। 

                                                                               हसन रेज़ा